यह ख़त समस्त देशवाशियों के लिए है खासकर उनके लिए जो खुद को किसी भी गिनती में नहीं पाते।
आज ऑफिस आते वक़्त चिराग़ दिल्ली में ग्रीन बत्ती
होने पर भी यातायात बहुत धीमा था अमूमन धीमा ही रहता है क्योंकि ट्रैफिक पुलिस
वाले यातायात को नियंत्रित करने से ज्यादा फ़ोटो खीचने में मसगूल रहते हैं।इधर-उधर नजरें घुमायी तो पाया की इस धीमे
यातायात की वजह आज एक कार है। इससे पहले
कि ग्रीन बत्ती लाल हो जाती सब अपने लिए रास्ता बनाते हुए निकलते जा रहे थे किसी
को कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था। सबकी तरह मैं भी पहले ग्रीन बत्ती पार की फिर मुझे एक
सफ़ेद और नीली वर्दी दिखी (ना मैंने उसकी शक्ल देखी और ना ही उस वर्दी पर नाम की
पट्टी, आख़िर मुझे भी जल्दी थी रोटी, कपड़ा और मकान की) मैंने वर्दी वाले को बताया की पीछे एक कार की वजह से
इतना जाम लग रहा है लेकिन उस वर्दी ने मुझे अनसुना कर दिया मैंने भी देर ना लगाते
हुए गाड़ी आगे बढ़ा ली, ग्रीन
बत्ती पार कर ही ली थी।
नौकरी के आपातकाल में अगर किसी को सरकारी नौकरी
मिल जाये तो समझो जन्नत मिल गई आख़िर नौकरी मिलने के बाद साठ साल तक कुछ करना जो
नहीं पड़ेगा (लगभग 90% लोग तो यही सोचते हैं)। ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है जो
सरकारी नौकरी की तैयारी सिर्फ इसलिए करते हैं कि नौकरी मिलने के बाद तो साठ साल तक
कोई हिला नहीं सकता चाहे जो हो जाये (काश! ये सोचते की सरकारी नौकरी से मैं देश की
सेवा करूँगा)।
लोग करें भी तो क्या, इतने बड़े देश में अगर कोई तीन -चार लाख की
कार से चलने की हैसियत रखता है (ऐसी हैसियत वालों की संख्या भी नगण्य है) और ग़लती
से से किसी बड़ी कार के साथ दुर्घटना हो जाये तो हमारा सिस्टम पहले बड़ी कार वाले को
बचाएगा, भाई बड़ी कार
वाले की जिंदगी की कीमत भी बड़ी होगी (अभी हाल ही में राजस्थान में एक वाकया देखने
को मिला)। सोचने वाली बात ये है की अगर छोटी कार की हैसियत वाले की जिंदगी की कीमत
कुछ नहीं है तो बाइक से चलने वाले और साइकिल से चलने वाले की जिंदगी की कीमत क्या
होगी? और पैदल चलने
वालों और सड़क किनारे गुजर-बसर करने वालों की जिंदगी तो गिनती में ही नहीं होगी।
ऐसे हालात में हर व्यक्ति यही चाहेगा की सिस्टम से जुड़ जाओ अपनी गिनती करा लो और
जीवनभर जन्नत के सफर पर निकल जाओ।
आजकल मुंबई बम धमाकों के आरोपी को फांसी देने का
समाचार छाया हुआ है ऐसे में राजनितिक पार्टियों को अपनी रोटी सेकने का मौका भी मिल
गया है, महाराष्ट्र
की राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले एक नेता जी ने तो यहाँ तक कह दिया की अमुक
व्यक्ति ने इतना बड़ा गुनाह नहीं किया है की उसको फांसी दी जाये अब आप इसी बात से
अंदाजा लगा लीजिये की जनता की जिंदगी की क्या कीमत होगी इनकी नज़रों में?
जनता को सब पता होता है हर राज्य की जनता जानती है
की उसके राज्य में ज्यादातार नौकरी कैसे मिलती है ये अलग बात है की आजकल
मध्यप्रदेश अजब-गजब हुआ पड़ा है। समाचार पत्रों में नौकरी प्रकाशित होते ही आम जनता
लिंक ढूढ़ने लगती है और पूरी कीमत देने को तैयार रहती है चाहे खेत ही क्यों ना
बेचना पड़े इसके लिए। क्योंकि जनता जानती है की सरकारी तंत्र की गिनती में उसका नाम
आ जाये तो जिंदगी सरल हो जाएगी। जनता की इसी बात का फायदा कौन उठाता है ये सब को
पता है। आजादी के इतने सालों के बाद भी जीवन को मुख्य-धारा से जोड़ने के लिए इतनी
जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
सरकार प्रयास भी कर रही है कि सबका साथ, सबका विकास हो पर जिस व्यक्ति
ने सिस्टम से जुड़ने के लिए मूल्य अदा किया है वह क्यों स्वच्छ्ता अभियान के तहत
आये पैसों को पूरी ईमानदारी से खर्चेगा। सरकारी ऑफिसों में ही ठेके के कर्मचारी और
नियमित कर्मचारी में सबका साथ, सबका विकास लागू नहीं हुआ अभी तक। डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया और भी बहुत सारी अच्छी
योजनाएं हैं पर इन सब की स्पेलिंग बच्चों को बताने के लिए ये बहुत जरुरी है की
टीचरों को इन सब योजनाओं की स्पेलिंग आये।
सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं किसको जिम्मेदार
ठहराया जाये? स्कूलों
को ही ले लीजिये, एडमिशन
के नाम पर खुलेआम कैश (सुचना:-ज्यादा मात्रा कैश का लेन-देन कानूनन गलत
है) लिए जा रहे हैं अब जो व्यक्ति इस लायक है की डोनेशन के नाम पर कैश दे सके वो
कहीं न कहीं ऐसी सीट पर बैठा होगा की दूसरे से कैश ले भी सके आख़िर भरपाई भी तो
करनी है उसको। आज भी जनता यही चाहती है की
उसको हर चीज में सब्सिडी मिले, राजनितिक पार्टियां इसी बात का फायदा भी खूब उठाती हैं। किसी भी पार्टी
का कार्यकर्ता हो वो मेहनत इसलिए करता है की उसकी सरकार बनने पर वो भी फायदा उठा
सके और जनता के बीच से निकल कर नेता बन सके और फिर उसी जनता को चूस सके (अपवाद को छोड़कर)। नेता
बाबुओं से कैश लेंगे, बाबू
जनता से कैश लेंगे। अब इतना सारा कैश का
लेन-देन देश में हो रहा है तो ऐसे में देशी कालाधन को तो सफ़ेद करे हमारी सरकार।
आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी जनता 12 रुपये की दुर्घटना बीमा को तरस रही
थी अब तक। उदहारण तो बहुत हैं पर अभी आप इतने में ही सोचिये की जिम्मेदार किसको
ठहराया जाये?
-सत्यप्रकाश पाण्डेय